कहने को तो दीवाली में अभी करीब महीनाभर है, लेकिन लगता नहीं है कि इतने दिनों में भी ग्रीन पटाखों की भरपाई हो सकेगी. पिछले साल ग्रीन पटाखे बेचने वाले दुकानदार हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. थोक बाजार में बैठे अमित जैन की मानें तो इस साल सिर्फ 20% ही ग्रीन पटाखों का उत्पादन हुआ है. उस पर भी जब अभी लेने वाले ग्राहक नहीं हैं तो ग्रीन पटाखा 15 से 20% तक महंगा हो चुका है. जब ग्राहक बाजार में निकलेगा तो यह और महंगा होगा.
जैन ने कहा कि अब 15-20 दिन में माल आने की उम्मीद भी नहीं बची है. फिलहाल आधी से ज्यादा फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं. सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली सरकार के मुताबिक, अब देसी पटाखे बिक नहीं सकते हैं. बता दें कि ग्रीन पटाखों की भारतीय शोध संस्था राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान ने की है. दुनियाभर में इन्हें प्रदूषण से निपटने के एक बेहतर तरीके की तरह देखा जा रहा है. नीरी ने ऐसे पटाखों की खोज की है, जो पारंपरिक पटाखों जैसे ही होते हैं, लेकिन इनके जलने से कम प्रदूषण होता है. इससे दीवाली पर आतिशबाजी चलाने का लुत्फ भी कम नहीं होता. ग्रीन पटाखे दिखने, जलने और आवाज में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं. हालांकि, ये जलने पर 50% तक कम प्रदूषण करते हैं.
ग्रीन पटाखे मुख्य तौर पर तीन तरह के होते हैं. एक जलने के साथ पानी पैदा करते हैं, जिससे सल्फर और नाइट्रोजन जैसी हानिकारक गैसें इन्हीं में घुल जाती हैं. इन्हें सेफ वाटर रिलीजर भी कहा जाता है. दूसरी तरह के ग्रीन पटाखे स्टार क्रैकर के नाम से जाने जाते हैं और ये सामान्य से कम सल्फर और नाइट्रोजन पैदा करते हैं. इनमें एल्युमिनियम का इस्तेमाल कम से कम किया जाता है. तीसरी तरह के अरोमा क्रैकर्स हैं, जो कम प्रदूषण के साथ-साथ खुश्बू भी पैदा करते हैं.